थोडा सा मदहोश हुआ हूँ, थोड़ी काबिज़ मस्ती है।
ना जाने क्यों सारी दुनिया, दीवाने पर हंसती है।
चाँद इन्हीं का तारे इनके, तितली फूल इन्हीं के हैं।
छोड़ो हातिम क्या रक्खा है, बेईमानों की बस्ती है।
जाने दो क्या तलबी करना, उनकी यही रिवायत है।
उनके आगे हम जैसों का, ना कद है न हस्ती है।
चार किताबें पढ़ने वाले, इल्म बाँट कर जाते हैं।
अपनी भी मज़बूरी है, तालीम वहाँ पर सस्ती है।
रोज़ हथेली पर उगते हैं, उनके ख़ुद के सूरज हैं।
-अमित जैन 'मौलिक'
आपका अतुल्य आभार धन्यवाद दिव्या जी। आपका कृतज्ञ हूँ। सादर
ReplyDeleteचार किताबिब पढने वाले ...
ReplyDeleteबहुत ही कामयाब और लाजवाब शेर है इस ग़ज़ल का ... जिंदाबाद ...
चार किताबें पढ़ने वाले, इल्म बाँट कर जाते हैं।
ReplyDeleteअपनी भी मज़बूरी है, तालीम वहाँ पर सस्ती है।
बेहतरीन !