Monday, 25 September 2017

तालीम वहाँ पर सस्ती है....अमित जैन 'मौलिक'


थोडा सा मदहोश हुआ हूँ, थोड़ी काबिज़ मस्ती है।
ना जाने क्यों सारी दुनिया, दीवाने पर हंसती है।

चाँद इन्हीं का तारे इनके, तितली फूल इन्हीं के हैं।
छोड़ो हातिम क्या रक्खा है, बेईमानों की बस्ती है।

जाने दो क्या तलबी करना, उनकी यही रिवायत है।
उनके आगे हम जैसों का, ना कद है न हस्ती है।

चार किताबें पढ़ने वाले, इल्म बाँट कर जाते हैं।
अपनी भी मज़बूरी है, तालीम वहाँ पर सस्ती है।

रोज़ हथेली पर उगते हैं, उनके ख़ुद के सूरज हैं।
मेरे घर की चार खिड़कियाँ, नूर के लिए तरसती हैं।
-अमित जैन 'मौलिक'

3 comments:

  1. आपका अतुल्य आभार धन्यवाद दिव्या जी। आपका कृतज्ञ हूँ। सादर

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  2. चार किताबिब पढने वाले ...
    बहुत ही कामयाब और लाजवाब शेर है इस ग़ज़ल का ... जिंदाबाद ...

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  3. चार किताबें पढ़ने वाले, इल्म बाँट कर जाते हैं।
    अपनी भी मज़बूरी है, तालीम वहाँ पर सस्ती है।
    बेहतरीन !

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