बंद मुट्ठी के बीचों - बीच
एकत्र किये स्मृतियों के चिन्ह
कितने सुन्दर जान पड़ रहे हैं
रात की चादर की स्याह
रंग में डूबा हर एक अक्षर
उन स्मृतियों का
निकल रहा है मुट्ठी की ढीली पकड़ से
मैं मुट्ठियों को बंद करती
खुले बालों के साथ
उन स्मृतियों को समेट रही हूँ
वहीं दूर से आती फीकी चाँदनी
धीरे - धीरे तेज होकर
स्मृतियों को देदीप्यमान कर
आज्ञा दे रही हैं
खुले वातावरण में विचरो ,
मुट्ठियों की कैद से बाहर
और ऐलान कर दो
तुम दीप्ति हो, प्रकाशमय हो
बस यूँ ही धीरे - धीरे
मेरी मुट्ठियाँ खुल गयीं
और आजाद हो गयीं स्मृतियाँ
सदा के लिये
- दीप्ति शर्मा
कुछ ना कह के भी सब कुछ कह डालती है आपकी कविता
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 11 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
ReplyDeleteवाह ! ग़ज़ल में इतनी सरलता भी छू लेती है दिल को। हमारे दिलों से गुज़रते ख़ूबसूरत एहसास तरोताज़ा करते हैं व्यथित मन को। आपसे एक गुज़ारिश है इतनी बेहतरीन ग़ज़ल में टंकण संबंधी भूल "दुसरा" यदि "दूसरा" हो जाय तो यह ग़ज़ल मुझे और भी अच्छी लगेगी। बधाई एवं शुभकामनाऐं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteवाह ! खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeleteसार्थक सृजन ------सादर ----
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