Sunday 3 September 2017

ज़माने का चलन देख रहा हूँ...मधु "मुस्कान "

अरमान  जल  रहें  हैं  मातम  की गोद में 
बिगड़ा  हुआ ज़माने का चलन देख रहा हूँ

दिलों में  छुपे ज़हर  को  पहचानते  नहीं 
अरमान  के  पहलू  में  कफ़न  देख रहा हूँ

इज्जत  तो घर में ही लुटने  लगी है दोस्त
आग  में  जलता  हुआ  वतन  देख  रहा हूँ

अम्नो -अमन  के चेहरे  मायूस  हो  गए हैं 
सलीबों पे लटका  हुआ चमन  देख  रहा हूँ

सीता तो जली गई  थी  मर्यादा की  आग में
आज घर-घर में  मर्यादा  हनन  देख  रहा हूँ

रिश्ते  तो  सारे  जल  कर  ख़ाक  हो  गए हैं
मुरझाई  हुई  ममता  का  रुदन  देख  रहा हूँ

इज्जत तो लुट  रही  दरिन्दों  के  हाथ  रोज
हर बेवा  के पे  माथे पर सिकन  देख रहा  हूँ

तहज़ीबो- अदब को,  दफ्न कर  दिया जिंदा
अब इस मुल्क  का बदला चलन देख रहा हूँ
- मधु "मुस्कान "


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