Wednesday, 6 September 2017

बिंदी....श्रद्धा मिश्रा


"दीदी बिंदी लगा लो, आज बिंदी भूल गयी हो," बंटी ने कहा।
सुलेखा ने उपेक्षा से कहा, "हाँ आज मन नहीं है।"
"क्यों क्या हुआ दीदी लगाओ न अच्छी लगती है तुम पे।"
"नहीं! नहीं!" कहते हुए सुलेखा बाहर आ गयी। बाहर आते ही रिक्शा दिख गया। सुलेखा ने आवाज़ लगाई और रिक्शे पे बैठ वो ऑफ़िस चल दी। रास्ते में ट्रैफ़िक से बचने के लिए उसने जल्दी जाना शुरू किया था। वो सबसे पहले ऑफ़िस भी पहुँच जाती थी। मगर अब वो उत्साह न था और अब सच पूछो तो ऑफ़िस जाने का मन ही नहीं करता है। कल ही ऑफ़िस में लेट वर्क करके देने के कारण बॉस ने सबके सामने तंज किया "लड़कियाँ सिर्फ़ बिंदी चूड़ी और मेकअप ही सही से कर सकती हैं। वो अपनी असुरक्षा के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हैं"। सुलेखा को ये बात बहुत चुभी मन किया अभी चली जाए। मगर बस कुछ मजबूरियाँ हैं, जो रोज़ उसे यहाँ तक खींच लाती थीं।
रास्ते मे अख़बार देखना उसके लिए एक काम निपटा जाने जैसा था तो फिर अख़बार पढ़ने का काम शुरू हुआ। फिर तीसरे चौथे पाँचवें और छठे पृष्ठ तक सरसरी निगाह डाली और बोल उठी उफ़्फ़!
रोज़-रोज़ की ऐसी वारदात पढ़-पढ़ के दिमाग़ तो काम ही नहीं करता। कितने ख़ौफ़नाक हो जाते हैं रास्ते। कल के ही अख़बार में गाँधीनगर की रेप की ख़बर थी। उसी रास्ते से सुलेखा को भी रोज़ गुज़रना होता था। पहले सुलेखा और प्रभा साथ थीं तो एक दूसरे का हौसला बन के उस रास्ते को काट लेती थीं। मगर अब सुलेखा अकेली थी।
आज ऑफ़िस में बहुत काम था सुलेखा का दिन गुज़र गया। घर जाते वक़्त फिर वही रास्ता और वही मोहल्ला ख़्याल में आने लगे। सुलेखा ने हिम्मत बाँधी और निकल आयी। पर नियति को आज शायद इम्तहान लेना था।

सुलेखा गाँधीनगर पहुँची रिक्शावाला रफ़्तार में था अचानक किसी के चीखने की आवाज़ आई। सुलेखा को लगा वहम होगा। फिर वो आवाज़ और क़रीब आती हुई महसूस हुई। सुलेखा ने रिक्शा रोकने को कहा और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई; एक लड़की दौड़ती हुई चली आ रही थी उसके पीछे दो लड़के थे। सुलेखा को दो मिनट तक समझ नहीं आया रुके या जाए।
फिर अचानक जाने क्या हुआ सुलेखा रिक्शा से उतर कर उस ओर बढ़ी। उसने लड़की को रोका और कहा डरो मत। तब तक लड़के उन दोनों के क़रीब पहुँच गए। एक ने सुलेखा से कहा अपने काम से काम रख इसे भेज मेरी तरफ़ । सुलेखा ने आव देखा न ताव एक ज़ोरदार थप्पड़ उसके गाल पर दिया। दूसरे ने कहा उसे बाद में पहले तुझे देखते है। सुलेखा ने नाइन्थ क्लास में सीखी कराटे की फिर जो शुरुआत की मगर वो अकेली थी, आख़िर कब तक दोनों का सामना करती। दोनों लड़को ने उसके हाथ और पैर पकड़ लिए। तभी सुलेखा को मुसीबत में देख उस डरी, सहमी लड़की को साहस आ गया उस ने सड़क पे पड़ा एक पत्थर उठा कर हाथ की तरफ़ वाले लड़के के सिर में दिया। उसके हाथों की पकड़ ढीली हुई तो फिर सुलेखा ने दोनों को धूल चटा दी। दोनों लड़के भाग खड़े हुए।
रिक्शावाला तब तक अगल-बगल के कुछ लोगों को ले कर उस जगह पर पहुँचा लेकिन तब तक सुलेखा सब का काम तमाम कर चुकी थी। दोनों लड़कियाँ एक दूसरे को देख के मुस्कुराईं। 
वहाँ खड़े लोगों में किसी ने कहा, "बेटियाँ किसी भी जगह कम नहीं चाहे युद्धस्थली हो या कर्मस्थली।"
फिर सुलेखा उस लड़की को उसके घर छोड़कर अपने घर पहुँची। उसकी ऐसी हालत देख बंटी चिल्लाया दीदी ये सब कैसे फिर उसने पूरे घर को रास्ते का क़िस्सा सुनाया।
अगले दिन जब सुलेखा ऑफ़िस के लिए तैयार हुई तो उसके मन मे एक नई उमंग थी गुनगुनाते हुए उसने बिंदी माथे पर लगाई और बंटी की तरफ़ देखा बंटी मुस्कुरा रहा था।
-श्रद्धा मिश्रा

10 comments:

  1. बहुत अच्छी कहानी. आप की कहानी लड़किया में अदम्य शाहस जगाती है. सादर

    ReplyDelete
  2. वाह, प्रेरक पंक्तियाँ।

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छी बेटियों का हौसला बढ़ाने वाली कहानी👏👏

    ReplyDelete
  4. आजकल सभी लड़कियों को साहस हिम्मत के साथ जूड़ो-कराटे मे भी निपुण होना होगा..।
    बहुत सुन्दर प्रेरक कहानी।

    ReplyDelete
  5. वाह! तत्काल बुद्धि से सुसज्जित नारी शक्ति की पराक्रम गाथा | सुंदर कथा जो मन की छू गयी | सस्नेह आभार प्रिय दिव्या |

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्छी कहानी। स्त्री अब अबला नहीं, सबला है।

    ReplyDelete
  7. सुंदर स्त्री जीवन को प्रेरणा देती सुंदर कथा।

    ReplyDelete