न यह समझो के बस दो चार तक है
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है
नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है
बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है
तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है
एक क़त्आ-
गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है
फ़तह ब्रम्हाण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है
ब्रम्हाण्ड
इस ज़र्रानवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया दिव्या जी
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