" अरी कुछ तो बोल ! आज तो तुम्हारे घर पर मिलने वालों की भीड़ थी । हँस - हँस कर बड़ी खातिरदारी भी कर रही थी ।" मंदिर के पास वाले घर के आउट हाउस में रहने वाली अनीता ने तपाक से बोला ।
स्वभाव से थोड़ी गंभीर ही रहने वाली सुनीता ने बस धीरे से मुस्कुरा दिया । सखियाँ सवाल पर सवाल कर रही थी और सुनीता सबकी बस सुन रही थी । मानो सखियों का साथ तो अच्छा लग रहा था पर दिल को कुछ जवाब देना उचित प्रतीत नहीं हो रहा था। कभी - कभी खुशियों से भरा माहौल भी ख़ामोशी के किस्से सुनाता है, जिसे दूसरे या तो देख - सुन नहीं पाते या समझना नहीं चाहते ।थोड़ी ही देर में सुनीता अपने उस घर के गेट पर आ पहुंची थी जिसके आउट हाउस में वह रहा करती थी ।
" अच्छा - अच्छा अब मैं चलती हूँ , दोनों बेटियाँ कल से ही बाप से चिपकी हुईं हैं। अब उनके खाने पीने का भी इंतज़ाम करना है ।" थोड़ी भरी आवाज़ में मुस्कुरा कर यह कहते हुए सुनीता ने अपनी सखियों को विदा किया । जब अपनी ही आवाज़ में अपने दामन की खुशियाँ भी खनक कर नहीं बोले तब या तो दामन खाली है या दिल भारी है।
चंडीगढ़ से लायी गयी चटकीली कुर्ती भी सुनीता को नहीं भा रही थी।मन में उठते कई प्रश्न बेचैन किये जा रहे थे । जिस व्यक्ति ने पिछले चार सालों में तीन या चार बार फ़ोन और कुल 500 रूपये भेजकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई है , वह आज अचानक इतना अपनापन क्यों जता रहा है ? पूरे पांच वर्षों तक सुनीता ने हरियाणा के एक गांव में अपनी शादीशुदा कड़वी ज़िन्दगी काटी थी । झारखण्ड से काम की तलाश में सुनीता अपनी सहेलियों के साथ चंडीगढ़ गयी थी और कुछ ही महीनों में उड़ते सपनों ने उसके पर काट डाले थे । इतनी उड़ान भरने की सजा वह आज तक बेटियों के साथ काट रही थी । बड़ी मुश्किल से वह सालों जिल्लतें सहन कर अपने शहर लौट पायी थी ।
" माँ , क्या सोच रही हो खड़ी- खड़ी ? जल्दी से आओ न । देखो तो सही पापा और क्या - क्या लाये हैं ।" छोटी बेटी की तेज आवाज़ सुनकर सुनीता की तन्द्रा टूटी ।
" क्या हुआ सुन्नो रानी ? दो दिनों से मारे ख़ुशी के बोल ही नहीं फुट रहे । अब तो चुप्पी तोड़ो ।" पति की कटाक्ष सुनकर सुनीता के सारे घाव हरे हो गए । शरीर में एक नया जोश महसूस हुआ जो पहले कड़वी गालियाँ सुनते ही दब जाया करता था।
" आखिर मेरे पास अब क्या छीन कर ले जाने आए हो ? " बच्चों के सोने के बाद सुनीता ने अपने पति की आँखों में आँख डालकर कड़क आवाज़ में पूछा । सुनीता का पति उसकी अंगारे बरसाती आँखें और पाषाण बन चुके बदन को देखकर थोडा सकपकाया । फिर अपनी बेटियों की ओर देखा और कोने में सोने चला गया ।गजेन्द्र चौटाला ने फिलहाल धौंस दिखाना मुनासिब नहीं समझा ।
" सुबह देख लूँगा सारी अकड़ " भुनभुनाते हुए करवट ले ली।
बाहर से आती आवाज़ों ने चौटाला की नींद तोड़ी तो देखा कि सूर्य की किरण उस खाली घर के अंदर फ़ैल चुकी थी । उसका सर भारी लग रहा था और सुनीता और उसके बच्चे कहीं नहीं दिख रहे थे । ठीक ठाक और टूटे फूटे सारे सामान वैसे ही पड़े थे बस सुनीता अपनी पूंजी आँचल में समेट कर ठीक वैसे ही निकल पड़ी थी जैसे चार साल पहले ।
सुनीता को चौटाला की मंशा समझते देर न लगी थी । मगर इस बार उसने अपनी पूंजी ... अपनी मासूम बेटियों को बचा लिया था और बचा लिया था उस निश्छल मासूमियत को जो ज़िन्दगी के झूठे सपने , प्यार और उपहार के झांसे में आकर कभी न कभी अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं ।
-सारिका भूषण
सुन्दर कहानी।
ReplyDeleteशुभ संध्या बहना
ReplyDeleteएक अच्छी कहानी
सादर
सुंदर कहानी
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