लिखती थी मैं
कूड़ा 'औ' कचरा
आती थी बदबू
दिखाई पड़ती थी
दिव्या के कूड़ेदान पर,
गलियों के मुक्कड़ में
भनभनाती थी
मक्खियाँ 'औ' कुत्तों के झुण्ड
मंडराते थे कौंवे..
यदा-कदा नज़र आ जाते
सूवर भी
उन्हें नही आती थी
बदबू और न
होती थी घिन उन्हें
उस कूड़े से..
प्रेमी थे वे कूड़े के
उसी कूड़े के
जिसे लिखा था
मेरी कलम ने
जिससे आती थी बदबू...
पता नहीं कैसे
राह बदल गई मेरी
अब गली के मुक्कड़
दिखते हैं
साफ सुथरे
किसी ने वहाँ
कर दी है प्रतिमा स्थापित
श्री हनुमान जी की....
महका दिया उस जगह को
ख़ुशबुओं से लोभान के..
अथः
शुरुआत नई
जय हो हनुमान जी की ।
ReplyDeleteऔर कूड़ा गायब हो गया
ReplyDeleteसादर
Waah, ek kauuvi aa gayi apki prashansa karne,
ReplyDeletesundar likha hai.
बेहतरीन
ReplyDeleteजब जागो तभी सवेरा,नकारात्कामकता से सकारात्मकता को ओर बढ़ते कदम सदैव स्वागत योग्य है।
ReplyDeleteबहुत खूब....
ReplyDeleteस्वच्छता मिशन...
वाह ! लाजवाब प्रस्तुति !!
ReplyDeleteमहका दिया उस जगह को
ReplyDeleteख़ुशबुओं से लोभान के..
स्वच्छता को प्रेरित करती सुंदर रचना।
सुंदर रचना.
ReplyDeleteहैरान हूँ मैं तो दिव्याजी, ये देखकर कि आपने इतनी निर्भीकता, इतने बडप्पन से अपनी गलतियों को न केवल मान लिया है, बल्कि सभी के सामने मान लिया है !!!
ReplyDeleteदिव्याजी,लेखक समाज में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो अपने लेखन पर स्वयं ऐसी टिप्पणी कर सकें जैसी आपने की है । ईश्वर आपको सुंदर लेखन के उपहार से नवाजे,इसी शुभकामना और बहुत सारे स्नेह के साथ....
है अँधेरी रात तो दिया जलाना कब मना!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर....
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