Tuesday, 10 October 2017

रस्में जहाँ की कोई कैसे अब निभायेगा....नीतू राठौर

पीयोगे कैसे निग़ाहों से पिलाई जाती है
शराब जैसे मैकदों में लुटाई जाती है।

तू होश में भी न पहचान पाई एक हमको
प्यास तो आँखों के प्याली से बुझाई जाती है।

तू रोज-रोज ही कहती पियों न आँखों से
दरिया बनके तू दिल में समाई जाती है।

डूबें है रात से आँखों के तेरे अंजुमन में
ये बातें चाँद-सितारों से छुपाई जाती है।

करो तो साँसों पे एतबार अब नहीं होता
सदाए दिल को धड़कन से सुनाई जाती है।

रस्में जहाँ की कोई कैसे अब निभायेगा
ख़्याल ओ ख़्वाब की दुनिया बसाई जाती है।

हमें तो खुद ही पिलाने यूँ आँखें आई थी
ऐसे ही प्यासे की प्यास "नीतू" बढ़ाई जाती है।
-नीतू राठौर

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