Tuesday, 3 October 2017

चंद शेर...फ़ेहमी बदायूनी


छिपकली ने बचा लिया वरना 
रात तन्हाई जान ले लेती 
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इक जनाज़े के साथ आया हूँ 
मैं किसी क़ब्र से नहीं निकला 
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वहां फ़रहाद का ग़म कौन समझे 
जहां बारूद पत्थर तोड़ती है 
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उसे लेकर जो गाड़ी जा चुकी है 
मैं शायद उसके नीचे आ गया हूँ 
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बस वही लफ़्ज़ जानलेवा था 
ख़त में लिख कर जो उसने काटा था
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शिकार आता है क़दमों में बैठ जाता है 
हमारे पास कोई जाल वाल थोड़ी है 
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फूल को फूल ही समझते हो 
आपसे शायरी नहीं होगी 
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तिरे मौज़े यहीं पर रह गए हैं 
मैं इनसे अपने दस्ताने बना लूँ 
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नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं 
हमारे ज़ख़्म वर्जिश कर रहे हैं 
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अदालत फ़र्शे-मक़्तल धो रही है 
उसूलों की शहादत हो गयी क्या 
फ़र्शे-मक़्तल = वध स्थल
-फ़ेहमी बदायूंनी

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