रात तन्हाई जान ले लेती
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इक जनाज़े के साथ आया हूँ
मैं किसी क़ब्र से नहीं निकला
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वहां फ़रहाद का ग़म कौन समझे
जहां बारूद पत्थर तोड़ती है
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उसे लेकर जो गाड़ी जा चुकी है
मैं शायद उसके नीचे आ गया हूँ
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बस वही लफ़्ज़ जानलेवा था
ख़त में लिख कर जो उसने काटा था
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शिकार आता है क़दमों में बैठ जाता है
हमारे पास कोई जाल वाल थोड़ी है
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फूल को फूल ही समझते हो
आपसे शायरी नहीं होगी
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तिरे मौज़े यहीं पर रह गए हैं
मैं इनसे अपने दस्ताने बना लूँ
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नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं
हमारे ज़ख़्म वर्जिश कर रहे हैं
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अदालत फ़र्शे-मक़्तल धो रही है
उसूलों की शहादत हो गयी क्या
फ़र्शे-मक़्तल = वध स्थल
-फ़ेहमी बदायूंनी
वाह।
ReplyDeleteBahut sundar
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