Tuesday 17 October 2017

कहाँ जा के ठहर जाऊँ मैं....अनिरुद्ध सिन्हा

हर  नई  रात  की आहट से ही डर जाऊँ मैं
सोचता  हूँ  कि अँधेरों  में  किधर  जाऊँ मैं

धूप की  आँच में  निकला  हूँ सफ़र में साहब
हाथ  कुछ आए  तो फिर लौट के घर जाऊँ मैं

बाद  मुद्दत  के मिला है वो मुझे  क़िस्मत से
फिर  उसी  याद  के दरिया में  उतर जाऊँ मैं

जाने किस मोड़ पे कट जाए ये साँसों की पतंग
किसको  मालूम  कहाँ  जा के ठहर  जाऊँ  मैं

जिससे  नाराज़  बहुत  होके   रहा  मैं  तनहा
वो  कभी  टूट के  मिल जाए तो मर जाऊँ  मैं

-अनिरुद्ध सिन्हा

1 comment:

  1. शुभ प्रभात....
    दीप पर्व की शुभ कामनाएँ
    आभार
    सादर

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