लगते हो मौन,
निर्विकार, एकाकी
निश्चल खड़े पहाडों की तरह
अटल ,अविचल तुम,
मैंने देखा है
तुम्हारे हृदय के अंतर्मन से
बूँद-बूँद रिसकर
कल-कल निसृत होती है
भावों की एक मीठी नदी
को शिशु सा किलकते हुये
जिसके निर्जन तट के
आगोश में बैठकर,
सुनकर धड़कती धाराओं का
सुगम संगीत
थका मन विश्राम पाता है
भरकर अंजुरी भर जल
तुम अपनी चौड़ी हथेलियों में
मेरे रुखे,प्यासे होंठों तक लाते हो
उस मीठे,शीतल जल की
सुगंध से ही
मन की क्षुधा शांत हो जाती है
और मन के तटबंधों को
तोड़कर बहने लगती है
तुम्हारे प्रेम की शीतल नदी
जानती हो
तुम्हारे प्रवाह में
स्वयं के अस्तित्व को विलीन कर
सर्वस्व भूलकर बहती हुई
मैं पा लेती हूँ
जीवन नदी का अमृत जल।
वाह!!बहुत सुंंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर...
ReplyDeleteवाह!!!
मन के अप्रितम भावों की सरस और सलिल धार !!!
ReplyDeleteतुम्हारे प्रवाह में
स्वयं के अस्तित्व को विलीन कर
सर्वस्व भूलकर बहती हुई
मैं पा लेती हूँ
जीवन नदी का अमृत जल।--- शीतलता और सौम्यता से भरपूर गरिमामय रचना -- आदरणीय दिव्या जी -- सस्नेह शूभकामनाएँ --
बहुत खूब
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