खत पर एक
मासूम के
बवाल था
कितना...
नादानी थी
उसकी...पर
मलाल था
मुझे कितना....
हाथों पे
मेरे आई थी
उतर रंगत
उसकी...गुलाबी
चेहरे पर
गुलाल शर्म का
था कितना.....
गुज़र जाता
हद से अगर मैं
तो मुज़रिम कहते
मुझे...और फिर
बग़ावत का भी
उबाल दिल में
कितना था....
टूट गया
काँच सा
मगर खनक भी
न हुई कुछ
पागलपन में भी
मुझे ख्याल..सबका
था कितना...
अंत इसका
सिवा मेरे
मालूम था
हर किसी को
हाल पर मैं
अपने...खुद ही
निहाल
कितना था....
चमक थी पूर्णिमा की
दिखा झरोखे से
हो गया भान सा..
वो चाँद पावन
कितना था.....
वाह...
ReplyDeleteबेहतरीन
सादर
सुन्दर
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteवाह!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
लाज़वाब रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
बहुत खुबसूरत कविता ..।
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब!!
ReplyDeleteवो चाँद कितना पावन था !!!!!!!!!! वाह !!!! कितना सुंदर और शुचिता भरा भाव है !! बहुत खूब !!अनुपम प्रेम अनुपम रचना !!!!!!
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