लखनऊ, उत्तर प्रदेश
1821-1901
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
डाल कर ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी के मिटा भी न सकूँ
ज़ब्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
के उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आए के जगा भी न सकूँ
नक्श-ऐ-पा देख तो लूँ लाख करूँगा सजदे
सर मेरा अर्श नहीं है कि झुका भी न सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझ को
ये वो किस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ
इस तरह सोये हैं सर रख के मेरे जानों पर
अपनी सोई हुई किस्मत को जगा भी न सकूँ
:: शब्दार्थ ::
हसरत-इच्छा, ज़ब्त-सहनशीलता, पहलू-गोद
.......................
Thanks for sharing this
ReplyDeleteलाज़वाब गज़ल पेश की है आपने.अमीर मीनाई को तो बहुत लोग जानते भी नही.
ReplyDeleteसादर.साझा करने के लिये शुक्रिया
लाजवाब गजल पेश करने के लिए शुक्रिया.....
ReplyDeleteआप की रचना बहुत अच्छी है
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteअमीर साहब की लाजवाब शायरी ...
ReplyDeletelajwab
ReplyDeletehindikavita07.blogspot.com