Wednesday, 1 November 2017

4 हाइकू....6 कहमुकरियाँ

अशोक बाबू माहौर

  (1) 
धुंध कोहरा 
ओस पत्तियों पर 
हवा डराती
 (2)
नभ विशाल 
फैला चारों तरफ 
भानु अकेला
 (3)
जगमगाते 
तारे नभ में सारे 
चाँद शर्माता
 (4)
खामोश प्रातः
ठण्ड सरसराती 
मुख थर्राते

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कहमुकरियाँ
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
(1)
बड़ी अकड़ से पहरा देता।
बदले में कुछ कभी न लेता।
चतुराई से ख़तरा टाला। 
क्या सखि, साजन? ना सखि, ताला।

(2)
दाँत दिखाए, आँखें मींचे।
जब चाहे तब कपड़े खींचे।
डरकर भागूँ घर के अंदर। 
क्या सखि,गुंडा? ना सखि, बंदर। 

(3)
वादे करता, ख़्वाब दिखाये। 
तरह तरह से मन समझाये। 
मतलब साधे, कुछ ना देता।
क्या सखि, साजन? ना सखि, नेता।

(4)
रस लेती मैं उसके रस में। 
हो जाती हूँ उसके वश में।
मैं ख़ुद उस पर जाऊँ वारी।
क्या सखि, साजन? ना, फुलवारी।

(5)
बल उससे ही मुझमें आता।
उसके बिना न कुछ भी भाता।
वह न मिले तो व्यर्थ खजाना।
क्या सखि, साजन? ना सखि, खाना। 

(6)
चमक दमक पर उसकी वारी।
उसकी चाहत सब पर भारी।
कभी न चाहूँ उसको खोना।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सोना।

साभार..
साहित्य कुंज


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