Thursday, 28 September 2017

नर्म कली बेटियाँ......अनहद गुंजन "गूँज"


(घनाक्षरी)
शब्द-शब्द दर्द हार, सुनो मात ये गुहार,
गर्भ में पुकारती हैं, नर्म कली बेटियाँ॥

रोम-रोम अनुलोम, हो न जाए श्वाँस होम,
टूटे न कभी ये स्वप्न, चुलबुली बेटियाँ॥

सृष्टि-सृजन आधार, कल की छिपी फुहार,
शूल सी नहीं हैं होती, पीर पली बेटियाँ॥

तेरा ही अभिन्न अंग, भरो तो नवीन रंग,
बेटों को है देती जन्म, धीर ढली बेटियाँ॥
-अनहद गुंजन "गूँज"

Monday, 25 September 2017

तालीम वहाँ पर सस्ती है....अमित जैन 'मौलिक'


थोडा सा मदहोश हुआ हूँ, थोड़ी काबिज़ मस्ती है।
ना जाने क्यों सारी दुनिया, दीवाने पर हंसती है।

चाँद इन्हीं का तारे इनके, तितली फूल इन्हीं के हैं।
छोड़ो हातिम क्या रक्खा है, बेईमानों की बस्ती है।

जाने दो क्या तलबी करना, उनकी यही रिवायत है।
उनके आगे हम जैसों का, ना कद है न हस्ती है।

चार किताबें पढ़ने वाले, इल्म बाँट कर जाते हैं।
अपनी भी मज़बूरी है, तालीम वहाँ पर सस्ती है।

रोज़ हथेली पर उगते हैं, उनके ख़ुद के सूरज हैं।
मेरे घर की चार खिड़कियाँ, नूर के लिए तरसती हैं।
-अमित जैन 'मौलिक'

पर परिंदे के फड़फड़ाते है....मनी यादव


अश्क़ जब आँख में आ जाते हैं
हम इक नई  ग़ज़ल सुनाते है

ताइरे दिल बंधा है यादों से
पर परिंदे के फड़फड़ाते है

यूँ कलाई पकड़ तो ली तुमने
शर्म से रोयें मुस्कराते है

बर्क़ की चीख़ सुनके बादल भी
उसके हालात पर रो जाते है

आसमाँ के दरख़्त में तारे
चाँदनी को ग़ज़ल सुनाते है

-मनी यादव

Saturday, 23 September 2017

ख़फ़ा.................अमित जैन ‘मौलिक’

सारा चमन जला बैठे 
वे क्यों ख़फ़ा ख़फा बैठे

देर लगी क्यों आने में 
कब से हम तन्हा बैठे

प्यार से पूछा उसने जो 
सारा हाल सुना बैठे

गज़ब हुआ उस रात को हम 
चाँद को चाँद दिखा बैठे

हंगामा क्यों बरपा है 
जो उसको ख़ुदा बना बैठे

-अमित जैन ‘मौलिक’

Friday, 22 September 2017

उलझन मन की...दूसरा कदम


बैठी थी आज 
लिखने को कुछ 
पर जो कुछ 
कहता था मन मेरा 
और कलम मेरी 
लिखती ही नही.. 
मेरे मन की बात 
करती थी मनमानी 
कलम मेरी..
और तो और..
उँगलियाँ मेरी..
करते करते टाईप 
बहक-बहक सी 
जाती थी.. 
झिड़कने पर 
कहती थी उँगलिया..
जो मेरे मन में आ रही.. 
जा रही उसी अक्षर पर..
तुझे क्या..
रहना सुधारते.. 
बाद टाईप होने के..
करने दे टाईप मुझे ..
मेरे मन की... 
छोड़ दी थक-हारकर 
आधा अधूरा..
बोली अपने आप से...
चलूँ दीदी के पास...
आज दिन तीसरा है 
मातारानी का... 
कर आऊँ दर्शन दीदी के.....
वो भी तो माँ है मेरी..


मेरी हरसत का आइना सवाल करता है....पावनी दीक्षित 'जानिब'

उनके दीदार की उम्मीद बस लगाए हुए 
कब से बैठे हैं उनकी राह में हम आए हुए।

दिल में जलते हुए चरागो को हवा देते है
कि अपनी ज़िद से बैठे हैं शम्आ जलाए हुए ।

मेरी हरसत का आइना सवाल करता है
ये किसका चहरा हैं आप चहरे मे छुपाए हुए ।

हमें खबर है मोहब्बत यहां नहीं मिलती
उम्र गुजरेगी युंही उम्मीद ए दिल लगाए हुए।

रह गुज़र है ये उसकी यहीं मंज़िल भी है
फिर भी गुजरी हैं सदियां उन्हें न आए हुए।

नब्ज थमने लगी है 'जानिब' धुआं सांसे है
फकीरी ज़िंदा है मगर उन पे सब लुटाए हुए ।

-पावनी दीक्षित 'जानिब'

Wednesday, 20 September 2017

दुआ...अमित जैन "मौलिक"


दर्द बढ़ जाए तो बता देना 
इश्क हो जाए तो जता देना ।। 

ज़ख्म भरने लगे सभी मेरे  
आओ आकर कभी हवा देना ।।

कत्ल के बाद भूल मत जाना
चार आँसूं कभी बहा देना ।।

तुम तो माहिर हो झूठ कहने में
फिर बहाना कोई बना देना ।।

तेरे पहलू में मौत आए मुझे
तेरी बाहों का आसरा देना ।।

अब न कोई दवा असर देगी
चंद सांसें है बस दुआ देना ।।

शोर ज्यादा है तेरी गलियों का
आएंगे इक दिन पता देना ।। 

-अमित जैन "मौलिक"

Tuesday, 19 September 2017

देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी.... कमर ज़लालवी

देखिए हो गई बदनाम मसीहाई भी 
हम न कहते थे कि टलती है कहीं आई भी 

हुस्न ख़ुद्दार हो तो बाइस-ए-शोहरत है ज़रूर 
लेकिन इन बातों में हो जाती है रुस्वाई भी 

सैंकड़ों रंज ओ अलम दर्द ओ मुसीबत शब-ए-ग़म 
कितनी हंगामा-तलब है मिरी तन्हाई भी 

तुम भी दीवाने के कहने का बुरा मान गए 
होश की बात कहीं करते हैं सौदाई भी 

बाल ओ पर देख तो लो अपने असीरान-ए-क़फ़स 
क्या करोगे जो गुलिस्ताँ में बहार आई भी 

पाँव वहशत में कहीं रुकते हैं दीवानों के 
तोड़ डालेंगे ये ज़ंजीर जो पहनाई भी 

ऐ मिरे देखने वाले तिरी सूरत पे निसार 
काश होती तेरी तस्वीर में गोयाई भी 

ऐ 'क़मर' वो न हुई देखिए तक़दीर की बात 
चाँदनी रात जो क़िस्मत से कभी आई भी 
-कमन ज़लालवी

तेरा स्वागत है...मदन वात्स्यायन


जिसके स्वागत में,
नभ ने बरसा दी है जोन्हियां सभी
और बड़ ने छांह बिछा डाली है
वह तू ऊषा, मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है

पत्तों के श्यामता के द्वीप
डुबोते हुए हुस्न-हिना के
गंध-ज्वार-सी हरित-श्वेत जो उदय हुई है
वह तू ऊषा, मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है

एक वस्त्र चंपई रेशमी,उंगली में नग-भर पहने
स्नानालय की धरे सिटकनी
वह तू ऊषा, मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है

क्षण-भर को दिख गई
दूसरे घर में जा छिपने के पहले
अपने पति से भी शरमाकर
वह तू ऊषा, मेरी आंखों पर तेरा स्वागत है
-मदन वात्स्यायन
....अहा जिंदगी

Monday, 18 September 2017

रात बितायी भोर की ख़ातिर....कैलाश झा 'किंकर'

"रात बितायी भोर की ख़ातिर
कुछ तो कुछ इंजोर की ख़ातिर

कौन जमा करता है दौलत
दीन-हीन ,कमजोर की ख़ातिर

झगड़ा-झंझट ,खून-खराबा
सब होते बलजोर की ख़ातिर

दूर चले जाते हैं अपने
बस केवल इक ठोर की ख़ातिर

कोई भी इस ओर नहीं है
लोग खड़े उस ओर की ख़ातिर"

-कैलाश झा 'किंकर'

Saturday, 16 September 2017

हमारे चश्म में अब भी लचक है.....चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’

न यह समझो के बस दो चार तक है
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है

नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है

बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है

तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है

एक क़त्आ-

गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है

फ़तह ब्रम्हाण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है


ब्रम्हाण्ड

सोचा इक रोज़ तुझे कह दूं.....अमित जैन "मौलिक"


ये इबादत है मुझे, हद से गुज़र जाने दे
प्यार करने दे मुझे, प्यार में मर जाने दे

एक अरसे से मेरे अंदर इक समंदर है
आज न रोक मुझे, टूट के बह जाने दे

गम न कर यार मेरे मैंने, दुआ मांगी है
चाँद होगा तेरे दामन में, असर आने दे

यूँ तमाशा न बना, मेरी तमन्नाओं का
थोड़ा सा और करीब आ, या मुझे आने दे

इश्क़ है खेल नही है, जो कुछ तजुर्बा हो
सोचा इक रोज़ तुझे कह दूं, मगर जाने दे



Friday, 15 September 2017

कूड़ा 'औ' कचरा ..


लिखती थी मैं 
कूड़ा 'औ' कचरा 
आती थी बदबू 
दिखाई पड़ती थी 
दिव्या के कूड़ेदान पर,
गलियों के मुक्कड़ में 
भनभनाती थी 
मक्खियाँ 'औ' कुत्तों के झुण्ड 
मंडराते थे कौंवे..
यदा-कदा नज़र आ जाते
सूवर भी
उन्हें नही आती थी 
बदबू और न 
होती थी घिन उन्हें
उस कूड़े से.. 
प्रेमी थे वे कूड़े के 
उसी कूड़े के 
जिसे लिखा था 
मेरी कलम ने 
जिससे आती थी बदबू...
पता नहीं कैसे 
राह बदल गई मेरी 
अब गली के मुक्कड़ 
दिखते हैं 
साफ सुथरे 
किसी ने वहाँ 
कर दी है प्रतिमा स्थापित 
श्री हनुमान जी की....
महका दिया उस जगह को 
ख़ुशबुओं से लोभान के..
अथः  
शुरुआत नई

'कौन है'......अमित जैन "मौलिक"

कंपकंपाती भौंहें
थरथराता ललाट
नशीली आँखें
मुंदी पलकें
पलकों की 
बेसुध कोरें
कोरों में नमी
नमी में तसव्वुर
तसव्वुर में मुस्कराता 
कौन है, जो मौन है

सघन-घने 
सुरमई गेसू 
गेसुओं की चन्द 
उन्मत लटें
टोली से बाहर 
उतर आती हैं 
कपोलों पर
किलोलें करने
कपोलों पर लज़्ज़ा
फैली है हया
हया में लाली
लालियों में सुरूर
इस सुरूर में 
कभी आता कभी जाता
कौन है, जो मौन है

रेशमी पल्लू
पल्लू में बैचेन वक्ष 
असंतुलित सा होता
छिन्न भिन्न 
तालमेल से दूर
स्वांस के साथ
स्वांस के विरुद्ध
स्वांसों में घुला चन्दन
जिसकी तासीर से
लडखडाते जज़्बात
विवश अधीरता
इस अधीरता में
मदमदाता समीप आता 
कौन है, जो मौन है

सिंदूरी हाँथ 
हाथों में बंधी मुट्ठियां
मुट्ठियों में सिमटी 
सुघड़ अंगुलियां
अंगुलियों के पोरों से
लिपटीं अंगूठियां 
अंगूठियों के नगीनों में
खिलता रौशन नूर
इस नूर में खिलखिलाता
कौन है, जो मौन है

सुडौल पैर
मादक पिंडलियां
पिंडलियों में बंधी पायल
पायल में सितारों की 
गुलालों सी रंगीनियां
बनाती हैं रंगोलियाँ
रचती हैं सौभाग्य 
प्रत्येक, दायरे से 
बाहर आने को उतारू
चहलकदमी के साथ
इन विवश कदमों की
आहटों में सरसराता
गुनगुनाता निकट आता
कौन है, जो मौन है।

अमित जैन "मौलिक"

Thursday, 14 September 2017

बचाकर रखना पृथ्वी....परमानन्द रमन


बचाकर रखना पृथ्वी
सुरक्षित
उस दिन के लिये
जब देवता तुम्हें धकेलकर
निकाल देंगे
अदनवाटिका से
कल्पतरु से फल
चुराने के आरोप में
छीन लिये जायेंगे
तुम्हारे सकल दैविक-अधिकार
तुम निकृष्ट मानव होकर
विवशता से काटोगे
अपना शेष जीवन
तब तक के लिये
बचाकर रखना
खेत भर जमीन
छत भर आसमान
प्यास भर नदी
छांव भर वृक्ष
बारिश भर बादल
पीठ भर पहाड़
उजाले भर दिन
नींद भर रात
और घर भर पृथ्वी
और याद से
चेता देना
अपनी भावी संतानों को
कि कैसे
एक कुटिल देव ने
योजनाबद्ध तरीकें से
याचक बनकर
हथिया ली थी
तुमसे
तुम्हारी पृथ्वी

-परमानन्द रमन
केन्द्रीय विद्यालय, टाटानगर
जमशेदपुर, झारखण्ड
मो.-8404804440

Wednesday, 13 September 2017

चलो न वहीं से शुरु करते हैं....अमित जैन 'मौलिक'

अब कभी तेरी बेबसी का, सबब नहीं पूछेंगे
चलो छोड़ो जाने भी दो, अब हम नही रूठेंगे

मेरा ईमान महज़ इसी शर्त पर, मुनहसर नही है
कि जब भी लूटेंगे सिर्फ, चाँद सितारे ही लूटेंगे

चलो न वहीं से शुरु करते हैं, हम हमारे तबसिरे
कि कभी तुम खैरियत लो, कभी हम हाल पूछेंगे

मैं हसरतों के हाथों मज़बूर हूँ, तो क्या हुआ
यकीन कर टूट जायेंगे, मगर वादों से नहीं टूटेंगे
-अमित जैन 'मौलिक'

Tuesday, 12 September 2017

एक दिया दिखा के लूटेगा.....कैलाश झा 'किंकर'

चंद सिक्के थमा के लूटेगा
बात मीठी सुना के लूटेगा

संत-सा लग रहा है ऊपर से
अपने पास बिठा के लूटेगा

कोई पत्थर नहीं पिघलता
उसको ईश्वर बता के लूटेगा

तीरगी को मिटा नहीं सकता
एक दिया दिखा के लूटेगा

है भरोसा मुझे नहीं उसपर
मुझको अपना बना के लूटेगा
-कैलाश झा 'किंकर'

कलियुग का लक्ष्मण.....व्हाट्स एप्प से


" भैया, परसों नये मकान पे हवन है। छुट्टी (इतवार) का दिन है। आप सभी को आना है, मैं गाड़ी भेज दूँगा।"  छोटे भाई लक्ष्मण ने बड़े भाई भरत से मोबाईल पर बात करते हुए कहा।
 " क्या छोटे, किराये के किसी दूसरे मकान में शिफ्ट हो रहे हो ?"
" नहीं भैया, ये अपना मकान है, किराये का नहीं ।"
 " अपना मकान", भरपूर आश्चर्य के साथ भरत के मुँह से निकला।
 "छोटे तूने बताया भी नहीं कि तूने अपना मकान ले लिया है।"
 " बस भैया ", कहते हुए लक्ष्मण ने फोन काट दिया।
" अपना मकान" ,  " बस भैया "  ये शब्द भरत के दिमाग़ में हथौड़े की तरह बज रहे थे।

           भरत और लक्ष्मण दो सगे भाई और उन दोनों में उम्र का अंतर था करीब  पन्द्रह साल। लक्ष्मण जब करीब सात साल का था तभी उनके माँ-बाप की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अब लक्ष्मण के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी भरत पर थी। इस चक्कर में उसने जल्द ही शादी कर ली कि जिससे लक्ष्मण की देख-रेख ठीक से हो जाये।
                प्राईवेट कम्पनी में क्लर्क का काम करते भरत की तनख़्वाह का बड़ा हिस्सा दो कमरे के किराये के मकान और लक्ष्मण की पढ़ाई व रहन-सहन में खर्च हो जाता। इस चक्कर में शादी के कई साल बाद तक भी भरत ने बच्चे पैदा नहीं किये। जितना बड़ा परिवार उतना ज्यादा खर्चा। 

            पढ़ाई पूरी होते ही लक्ष्मण की नौकरी एक अच्छी कम्पनी में लग गयी और फिर जल्द शादी भी हो गयी। बड़े भाई के साथ रहने की जगह कम पड़ने के कारण उसने एक दूसरा किराये का मकान ले लिया। वैसे भी अब भरत के पास भी दो बच्चे थे, लड़की बड़ी और लड़का छोटा।

                मकान लेने की बात जब भरत ने अपनी बीबी को बताई तो उसकी आँखों में आँसू आ गये। वो बोली, "  देवर जी के लिये हमने क्या नहीं किया। कभी अपने बच्चों को बढ़िया नहीं पहनाया। कभी घर में महँगी सब्जी या महँगे फल नहीं आये। दुःख इस बात का नहीं कि उन्होंने अपना मकान ले लिया, दुःख इस बात का है कि ये बात उन्होंने हम से छिपा के रखी।"

          इतवार की सुबह लक्ष्मण द्वारा भेजी गाड़ी, भरत के परिवार को लेकर एक सुन्दर से मकान के आगे खड़ी हो गयी। मकान को देखकर भरत के मन में एक हूक सी उठी। मकान बाहर से जितना सुन्दर था अन्दर उससे भी ज्यादा सुन्दर। हर तरह की सुख-सुविधा का पूरा इन्तजाम। उस मकान के दो एक जैसे हिस्से देखकर भरत ने मन ही मन कहा, " देखो छोटे को अपने दोनों लड़कों की कितनी चिन्ता है। दोनों के लिये अभी से एक जैसे दो हिस्से   तैयार कराये हैं। पूरा मकान सवा-डेढ़ करोड़ रूपयों से कम नहीं होगा। और एक मैं हूँ, जिसके पास जवान बेटी की शादी के लिये लाख-दो लाख रूपयों का इन्तजाम भी नहीं है।"

मकान देखते समय भरत की आँखों में आँसू थे जिन्हें  उन्होंने बड़ी मुश्किल से बाहर आने से रोका। तभी पण्डित जी ने आवाज लगाई, " हवन का समय हो रहा है, मकान के स्वामी हवन के लिये अग्नि-कुण्ड के सामने बैठें।

लक्ष्मण के दोस्तों ने कहा, " पण्डित जी तुम्हें बुला रहे हैं।" 

 यह सुन लक्ष्मण बोले, " इस मकान का स्वामी मैं अकेला नहीं, मेरे बड़े भाई भरत भी हैं। आज मैं जो भी हूँ सिर्फ और सिर्फ इनकी बदौलत। इस मकान के दो हिस्से हैं, एक उनका और एक मेरा।"

          हवन कुण्ड के सामने बैठते समय लक्ष्मण ने भरत के कान में फुसफुसाते हुए कहा, " भैया, बिटिया की शादी की चिन्ता बिल्कुल न करना। उसकी शादी हम दोनों मिलकर करेंगे ।"

                 पूरे हवन के दौरान भरत अपनी आँखों से बहते पानी को पोंछ रहे थे, जबकि हवन की अग्नि में धुँए का नामोनिशान न था ।

भरत जैसे आज भी मिल जाते हैं आज के इन्सान में
पर लक्ष्मण जैसे बिरले ही मिलते हैं इस  जहान मे
....व्हाट्सएप्प से...

Monday, 11 September 2017

पूंजी.....सारिका भूषण


 " हाय ! अब तो चेहरे पर रौनक ले आओ। आखिर दो साल बाद तुम्हारा दूल्हा आया है। " सुनीता के काम से निकलते ही बाहर उसका इंतज़ार कर रही सखियों ने चुटकी ली।
" अरी कुछ तो बोल ! आज तो तुम्हारे घर पर मिलने वालों की भीड़ थी । हँस - हँस कर बड़ी खातिरदारी भी कर रही थी ।" मंदिर के पास वाले घर के आउट हाउस में रहने वाली अनीता ने तपाक से बोला ।
स्वभाव से थोड़ी गंभीर ही रहने वाली सुनीता ने बस धीरे से मुस्कुरा दिया । सखियाँ सवाल पर सवाल कर रही थी और सुनीता सबकी बस सुन रही थी । मानो सखियों का साथ तो अच्छा लग रहा था पर दिल को कुछ जवाब देना उचित प्रतीत नहीं हो रहा था। कभी - कभी खुशियों से भरा माहौल भी ख़ामोशी के किस्से सुनाता है, जिसे दूसरे या तो देख - सुन नहीं पाते या समझना नहीं चाहते ।थोड़ी ही देर में सुनीता अपने उस घर के गेट पर आ पहुंची थी जिसके आउट हाउस में वह रहा करती थी ।
" अच्छा - अच्छा अब मैं चलती हूँ , दोनों बेटियाँ कल से ही बाप से चिपकी हुईं हैं। अब उनके खाने पीने का भी इंतज़ाम करना है ।" थोड़ी भरी आवाज़ में मुस्कुरा कर यह कहते हुए सुनीता ने अपनी सखियों को विदा किया । जब अपनी ही आवाज़ में अपने दामन की खुशियाँ भी खनक कर नहीं बोले तब या तो दामन खाली है या दिल भारी है।
चंडीगढ़ से लायी गयी चटकीली कुर्ती भी सुनीता को नहीं भा रही थी।मन में उठते कई प्रश्न बेचैन किये जा रहे थे । जिस व्यक्ति ने पिछले चार सालों में तीन या चार बार फ़ोन और कुल 500 रूपये भेजकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई है , वह आज अचानक इतना अपनापन क्यों जता रहा है ? पूरे पांच वर्षों तक सुनीता ने हरियाणा के एक गांव में अपनी शादीशुदा कड़वी ज़िन्दगी काटी थी । झारखण्ड से काम की तलाश में सुनीता अपनी सहेलियों के साथ चंडीगढ़ गयी थी और कुछ ही महीनों में उड़ते सपनों ने उसके पर काट डाले थे । इतनी उड़ान भरने की सजा वह आज तक बेटियों के साथ काट रही थी । बड़ी मुश्किल से वह सालों जिल्लतें सहन कर अपने शहर लौट पायी थी ।

" माँ , क्या सोच रही हो खड़ी- खड़ी ? जल्दी से आओ न । देखो तो सही पापा  और क्या - क्या लाये हैं ।" छोटी बेटी की तेज आवाज़ सुनकर सुनीता की तन्द्रा टूटी ।

" क्या हुआ सुन्नो रानी ? दो दिनों से मारे ख़ुशी के बोल ही नहीं फुट रहे । अब तो चुप्पी तोड़ो ।" पति की कटाक्ष सुनकर सुनीता के सारे घाव हरे हो गए । शरीर में एक नया जोश महसूस हुआ जो पहले कड़वी गालियाँ सुनते ही दब जाया करता था।

" आखिर  मेरे पास अब क्या छीन कर ले जाने आए हो ? " बच्चों के सोने के बाद सुनीता ने अपने पति की आँखों में आँख डालकर कड़क आवाज़ में पूछा । सुनीता का पति उसकी अंगारे बरसाती आँखें और पाषाण बन चुके बदन को देखकर थोडा सकपकाया । फिर अपनी बेटियों की ओर देखा और कोने में सोने चला गया ।गजेन्द्र चौटाला ने फिलहाल धौंस दिखाना मुनासिब नहीं समझा ।

" सुबह देख लूँगा सारी अकड़ " भुनभुनाते हुए करवट ले ली।

बाहर से आती आवाज़ों ने चौटाला की नींद तोड़ी तो देखा कि सूर्य की किरण उस खाली घर के अंदर फ़ैल चुकी थी । उसका सर भारी लग रहा था और सुनीता और उसके बच्चे कहीं नहीं दिख रहे थे । ठीक ठाक और टूटे फूटे सारे सामान वैसे ही पड़े थे बस सुनीता अपनी पूंजी आँचल में समेट कर ठीक वैसे ही निकल पड़ी थी जैसे चार साल पहले ।

सुनीता को चौटाला की मंशा समझते देर न लगी थी । मगर इस बार उसने अपनी पूंजी ... अपनी मासूम बेटियों को बचा लिया था और बचा लिया था उस निश्छल मासूमियत को जो ज़िन्दगी के झूठे सपने , प्यार और उपहार  के झांसे में आकर कभी न कभी अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं ।
-सारिका भूषण

Sunday, 10 September 2017

कुछ क्षणिकाएँ...प्रकाश लुनावत




तेरा प्यार
एक दर्द
एक वेदना
एक कसक
एक तड़प
और
बेशुमार आँसू.

---

तेरी याद
वो लम्हें
वो गुजरे पल
वो अधूरा स्पर्श
और
एक अंतहीन इंतजार.

---

तेरी वफ़ा
वो झूठे वादे
वो टूटती क़स्में
वो बेवजह इल्जाम
और
मेरा अन्धा विश्वास

---

तेरा वजूद
मेरी बोझिल आहें
मेरी तड़पती बाँहें
मेरी बिलखती आँखें
और मेरी डूबती साँसें.

----

तेरा साथ
ये धुंधला साया
ये काली परछाँई
लम्बी तनहाई
और
एक अधूरी आस

---

तेरा ना होना
तेरा ना होना
सर्पदंश सा विषैला
साँसें भरता
जीवित
एक अभिशाप

---

तेरे जाने के बाद
आँखों में जलजले
मरूस्थल दिल की जमीन
भावनाओं की साजिश
संभावनाओं का जलना
धधकते अंगारों से पल
दर्द का विकराल रूप
मृत्यु से द्वंद्व
पथराए जिस्म का गलना
तेरे जाने के बाद...।

संकलितः प्रकाश....व्हाट्स एप्प से

Saturday, 9 September 2017

कहीं कोई पहल नहीं होगी.....अमित 'हर्ष'

कोई सूरत-ए-बदल नहीं होगी 
ये मुश्किल शायद हल नहीं होगी

वाक़िफ़ हैं अंजाम से फिर भी 
कहीं कोई पहल नहीं होगी

न हम तैयार हैं न ये दुनिया ही 
कोई रद्द-ओ-बदल नहीं होगी

आज मुमकिन है जंग पर बहस
ये गुंजाइश मगर कल नहीं होगी

नसीहतें मशवरे सर आँखों पर 
हमसे आपकी नक़ल नहीं होगी

कुछ तुम भी कहो ‘अमित’ से कभी 
ऐसे तो बात मुक़म्मल नहीं होगी

-अमित 'हर्ष'

Thursday, 7 September 2017

मुट्ठियाँ.....दीप्ति शर्मा


बंद मुट्ठी के बीचों - बीच
एकत्र किये स्मृतियों के चिन्ह
कितने सुन्दर जान पड़ रहे हैं
रात की चादर की स्याह
रंग में डूबा हर एक अक्षर
उन स्मृतियों का
निकल रहा है मुट्ठी की ढीली पकड़ से
मैं मुट्ठियों को बंद करती
खुले बालों के साथ
उन स्मृतियों को समेट रही हूँ
वहीं दूर से आती फीकी चाँदनी
धीरे - धीरे तेज होकर
स्मृतियों को देदीप्यमान कर
आज्ञा दे रही हैं
खुले वातावरण में विचरो ,
मुट्ठियों की कैद से बाहर
और ऐलान कर दो
तुम दीप्ति हो, प्रकाशमय हो
बस यूँ ही धीरे - धीरे
मेरी मुट्ठियाँ खुल गयीं
और आजाद हो गयीं स्मृतियाँ
सदा के लिये

- दीप्ति शर्मा