मौसम की बेरुख़ी से बेहाल
जाड़े की ठिठुरती रात में,
रेशमी गरम लिहाफ ओढ़े,
अधमुंदी पलकों से मीठे ख़्वाब
देखने की कोशिश में
करवटें बदलते लोग
आलीशान इमारतों की छाँव में
कच्ची मिट्टी से बनी
झोपड़पट्टियों के बीच
जलते अलाव को घेरकर बैठे
सुख-दुख की बातें करते
सिहरते सिकुडे़ लोग
अलाव की चटखती लकडियों
में पिघलाते अपना ग़म
आधी रात के बाद
बुझती आग के पास
फटी कंबल को
बदन पर कसकर लपेटे
कुनमुनाते लोग
क्यूँ नहीं बुझते शोलों से
चिंनगारियों के
एक-एक कतरे को उठाकर
अंधेरे जीवन की डगर पर
चल पड़ते है??
छीनने अपने हिस्से का सूरज
जिसकी रोशनी से
सदा के उजाला भर जाये
कुहरे भरे जीवन में
और नरम धूप भरे
उनकी बर्फीली ठंडी रातों में