Friday, 26 January 2018
Wednesday, 17 January 2018
खत पर एक मासूम के बवाल था कितना...
खत पर एक
मासूम के
बवाल था
कितना...
नादानी थी
उसकी...पर
मलाल था
मुझे कितना....
हाथों पे
मेरे आई थी
उतर रंगत
उसकी...गुलाबी
चेहरे पर
गुलाल शर्म का
था कितना.....
गुज़र जाता
हद से अगर मैं
तो मुज़रिम कहते
मुझे...और फिर
बग़ावत का भी
उबाल दिल में
कितना था....
टूट गया
काँच सा
मगर खनक भी
न हुई कुछ
पागलपन में भी
मुझे ख्याल..सबका
था कितना...
अंत इसका
सिवा मेरे
मालूम था
हर किसी को
हाल पर मैं
अपने...खुद ही
निहाल
कितना था....
चमक थी पूर्णिमा की
दिखा झरोखे से
हो गया भान सा..
वो चाँद पावन
कितना था.....
Friday, 12 January 2018
अलाव की चटखती लकडियों में.....
मौसम की बेरुख़ी से बेहाल
जाड़े की ठिठुरती रात में,
रेशमी गरम लिहाफ ओढ़े,
अधमुंदी पलकों से मीठे ख़्वाब
देखने की कोशिश में
करवटें बदलते लोग
आलीशान इमारतों की छाँव में
कच्ची मिट्टी से बनी
झोपड़पट्टियों के बीच
जलते अलाव को घेरकर बैठे
सुख-दुख की बातें करते
सिहरते सिकुडे़ लोग
अलाव की चटखती लकडियों
में पिघलाते अपना ग़म
आधी रात के बाद
बुझती आग के पास
फटी कंबल को
बदन पर कसकर लपेटे
कुनमुनाते लोग
क्यूँ नहीं बुझते शोलों से
चिंनगारियों के
एक-एक कतरे को उठाकर
अंधेरे जीवन की डगर पर
चल पड़ते है??
छीनने अपने हिस्से का सूरज
जिसकी रोशनी से
सदा के उजाला भर जाये
कुहरे भरे जीवन में
और नरम धूप भरे
उनकी बर्फीली ठंडी रातों में
Tuesday, 2 January 2018
ढाई अक्षर...रश्मि भटनागर
आज से सदियों पहले
शायद सृष्टि के समय
मैंने दिल की किताब से
कुछ अक्षर चुराये।
चोरी तो चोरी है - कभी पकड़ी ही जायेगी
घबराई सी मैं
उन अक्षरों को लेकर भटकती रही
फिर मैंने वो अक्षर
एक कली में छुपा दिए
अगले ही दिन
वो कली चटकी और फूल बनी
अब फिर डर लगा मुझे
सबको पता चल जायेगा
वहाँ से अक्षर उठा कर
मैंने फूल पर रख दिए
थोड़ी देर में ही वहाँ
भंवरे गुनगुनाने लगे
फिर वो अक्षर मैंने
चुपके से उठाये - और
आसमान में उछाल दिए
ये सब क्या हो गया
मैंने तो सिर्फ ढाई अक्षर ही चुराये थे
ये तो लाखों तारे बन गए
काश, मैं वो अक्षर अपने
दिल में ही रख लेती|
-रश्मि भटनागर